वल्दीयत ए जिस्म चली जाती है funny shayari ,
वल्दीयत ए जिस्म चली जाती है ,
वक़्त के साथ ज़ीस्त का हाल ए मुक़ाम बदल जाता है ।
जी भर के सज सँवर लो शाम ए महफ़िल की तरह ,
जश्न ए ग़ालिब के अलावा चरागों का कोई ठौर नहीं ।
भिखारियों की तादाद जैसी तैसी है ,
वोट बैंक के झाँसे में सियासी देश को कटोरा थमा दिए ।
जिनको लत लग गयी हो मुझको हर्फ़ दर हर्फ़ पढ़ने की ,
दिल में उतर के मेरे ग़म की तहरीरें बाँच लें ।
इंसानियत क्या कम थी हिंदुस्तानी बताने में ,
जो सज सँवर के कोई हिन्दू कोई मुसलमान बन गए ।
तुमको हर पल लफ़्ज़ों में तब्दीलियत की दरकार हुआ करती है ,
नाम मेरा लेके मुझको तो न बदल दोगे तुम ।
उँगलियों में गिन लिए सारे ,
आसमान भर में एक तारा मेरी किस्मत का न था ।
जिस्मो को सजा लिया मज़हबी पैरहान पहन ,
दर बदर बेलिबास क्यों रूहें भटक रही हैं ऐसे ।
हमसे न काफ़िरनामे की बात करो ,
रूहों को रखो पाक जिस्मो के लिए , सलीके के मज़हबों का इंतज़ाम करो ।
हमने देखे हैं वक़्त ए फ़िराक़ कई ,
मज़हब बदल दिया कोई , सियासत के वास्ते कई चेहरे बदल गए ।
हमने शिरक़त की थी शाम ए बज़्म नगमो के वास्ते ,
उनकी नज़रों से निकला तीर सीधा दिल में पैबस्त हो गया ।
रूहों पर ज़मीर ए खून के धब्बे हैं इस क़दर ,
दामन बचाइयेगा तो और भीग जायेगा ।
सजके निकला वो सुनहरी धूप तले ,
पीछे पीछे बारिश की रस भरी फ़ुहार चली ।
जलते बुझते सरारों से मत पूछो ,
इश्क़ की तिश्नगी कैसी , जिस्म भीग जाता है रूह झुलस जाती है ।
क्या करोगे बन्दों की बंदगी करके फ़राज़ ,
जब गली नुक्कड़ में खुदा रोज़ बनते हैं ।
जुम्मा जुम्मा बचे हैं ज़िन्दगी के दो चार लम्हे ,
जुम्मा जुम्मा इस जिस्म का सिंगार तो कर लूँ ।
लोग कहते हैं जिस्म बुड्ढा है ,
लोग किराये के मकानों में जैसे उम्रें गुज़ार देते हैं ।
तुझको सजने सँवरने में दिन गुज़रता है ,
तब कहीं जाकर के मेरी जान ए ग़ज़ल शाम ए बज़्म की शान बनती है ।
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