urdu quotes in hindi दिल लूट लिया अब नगद ए जान मांगते हैं ,

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urdu quotes in hindi दिल लूट लिया अब नगद ए जान मांगते हैं ,
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urdu quotes in hindi दिल लूट लिया अब नगद ए जान मांगते हैं ,

दिल लूट लिया अब नगद ए जान मांगते हैं ,

हुश्न वाले भी मेरे शहर में इश्क़ के क्या क्या ईनाम मांगते हैं ।

 

मैं आज भी कुछ तस्वीरों में कभी रंग नहीं भरता ,

गोया हकीकत ए रूदाद अक्सर बहुत दर्द देती हैं ।

 

मौत मुक़म्मल है खुद की औरों की मैय्यत सजा रहा हूँ ,

मेरा बिखरा पड़ा है कारोबार ए कारवां सबके जनाज़े को कांधा लगा रहा हूँ ।

 

तुम ख्वाब की नदिया तो मैं पतवार बन जाऊं ,

चलो इस रात की किश्ती को दोनों साहिल से मिलाते हैं ।

 

कहते हैं जिस में आशिक़ सवार हो उस पर सबकी नज़र रहती है ,

डूबती है वही किश्ती जो खुद की कमज़ोरियों से अन्जान रहती है ।

 

रूह जलती थी नरम बिस्तर में ,

मैं निकल आया आफताब ए शहर की तंग गलियों में जिस्म तपने दिया ।

 

बाद रूबरू उनके सलामती की दुआ रखिये ,

तभी कल जहान मह-रु होगा ।

 

अब तो तखील ए बोसा की उम्मीद जाती रही ,

दिन गुज़रता नहीं सारी रात नींद आती नहीं ।

 

आँखों के रास्ते दिल में उतर गया था जो ,

छुप के बैठा है अब मेरा ही क़त्ल करने को ।

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खता नज़रों की दिल ख़्वामख़्वाह कसूरवार हो गया ,

आज सर ए बाजार एक मासूम का क़त्ल ए आम हो गया ।

 

अब वो हमें दिखलायेंगे ज़ौक़ ए शायरी का फ़न ,

जो शब् ए बज़्म अपना दिल लहू लुहान ले करके बैठे हैं ।

 

जाते जाते उसने कहा था दिल में दर्द हो तो शायरी होती है ,

हमने भी चलते चलते दिलजलों का कारवां तैयार करके रख दिया ।

 

बड़ा ख़ौफ़ज़दा रहता है शहर तब से सर्दी में ,

जब से मुनियाद सुना दी है साहेब ने दिल भी धड़केगा उनकी मर्ज़ी से ।

 

लुत्फ़ ए रूह देता था कभी एक प्याला भी उनके हाँथ का ,

फिर एक सैय्याद ने ऐसी चाय पिलायी की अब तो सर्द की ठिठुरन में भी चाय के नाम से डर लगता है ।

 

हर शब खाली पड़े मकान सा हाल यूँ रहा ,

जैसे टूटी हुयी कलम से कहता दवात कुछ रहा ।

 

रास्ता ही बदलना था तो क्या कहते हमसे,

हमने थोड़े ही न उनको यहां तक लाया था ।

 

वो बात बात पर जान मांगते थे दिल के ऐवज में कब से ,

गोया हमने रुख से नक़ाब हटाने को क्या कह दिया मुँह फुलाये बैठे हैं तब से ।

 

यहां तो शब् ए बारात बस दीदा ए यार की उम्मीद रहती है ,

वो यूँ गुज़रते हैं मुस्कुराते हुए जेबों में कई चाँद छुपा रखे हों जैसे ।

 

खुश्क आँखों में लाख दर्द छुपाया उसने ,

लफ्ज़ पुरनम थे सफहों में गिर के फ़ैल गए ।

 

शब् ए हिज्र में जल मरे थे जो ,

ज़मींदोह तुख्म (बीज) बोल पड़े हैं अंजुमन में गुंचा ए गुल हम खिलायेगे ।

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ग़म ए गुबार है या मौसम ए खलिश का असर ,

आजकल शब् ओ सेहर आसमान का आफ़ताब बुझा बुझा सा रहता है ।

 

शब् ओ रोज़ निकलता हूँ दिल में मौसम ए लुत्फ़ की आरज़ू लेकर ,

सर्द खामोश हवाएं सरगोशियों में दिल के पुराने तार छेड़ देती है ।

 

रौशनी डसती है नागिन बनकर ,

घुप अंधेरों की वीरानियाँ दिल को पर सुकूत देती हैं ।

 

हर शाम यही हाल बेतहाशा रहा ,

दिल बुझा बुझा सा था मैं जला जला सा रहा ।

 

पनाह माँगती है मेरे पहलू में मोहब्बत मेरी ,

जो बड़ी बेरुखी से दामन बचा के भागती थी मुझसे दूर कहीं ।

 

अदा कर आये वजूद अपना बस एक हल्की से जुम्बिश पर ,

वो निगाह ए रक़्स जब करती थी गदा ए इश्क़ कहती थी ।

 

कब तलक दिल धड़कता मुर्दा लाशों में ,

जब शहर का शहर सिमटा पड़ा था सर्द राखों में ।

 

वो शोखियाँ वो अदाएं वो बांकपन कहाँ से लाते हैं ,

रुख से नक़ाब भी नहीं हटता और दिल टूट जाते हैं ।

 

सर ए बाजार एक चर्चा सुर्खरू है आजकल ,

बुतों के हाँथो हुआ है आदम ए खून आजकल ।

 

जितने घायल थे खुद बा खुद मर गए होंगे ,

हादसा ए मोहब्बत के बाद भी शहर में इब्न ए इंसान का कोई नाम ओ निशान बचा है क्या ।

 

हादसे और भी हसीन हुआ करते थे खून खराबा किये बगैर ,

ये सब कारगुजारियां उसकी हैं जो दिल के मामलात छेड़ देता है अंजाम ए कारवां सोचे बगैर ।

 

वो पूछते हैं शहर अपना है मकान अपना है धुंआ किसका होगा ,

जला अपना है मकीन अपना है तो आह ए फुवां किसका होगा ।

 

कई शामों की शामें की बस इक शाम की खातिर ,

फिर तमाम शामों की शाम कर दी उसी शाम की खातिर ।

 

जिस्म बिकते हैं ईमान बिकते हैं इसी रोटी के वास्ते ,

सर ए बाजार इंसान बिकते हैं जाने किस ख़ुशी के वास्ते ।

 

जिस्मों की नुमाइश का तलबगार था ज़माना सारा ,

किसी मजलूम की मजबूरी कहाँ कोई समझता है ।

 

वो कहते हैं जब भी मिलो हमसे लाजवाब हो उम्दातरीन हो ,

सादा मिजाज़ी को हम बेखुदी में भी मुलाक़ात ही नहीं कहते ।

 

जो भी मिलता है यही पूछता है कमाते क्या हो ,

एक तज़किरा ए मोहब्बत में ज़िन्दगी जाया की तज़ुर्बा क्या कम है ।

 

सारे जहान को जलाने का जुनून दिल में रखकर ,

मैं हर रोज़ खुद को ख़ाक किया करता हूँ ।

 

बाद ए दीदा ए महताब शहर भर का हाल यही है ,

पलकों में एक खुशनुमा सा ख़्वाबों का मुक़ाम और सामने सेहर खड़ी है ।

 

चंद लम्हात के दरूं है उसके ज़मीन ओ फलक दोनों ,

मैं हर पल में बस उसके गुज़रते कदमों के निशान ढूँढूँ ।

 

चंद लफ़्ज़ों में सुना दी उसने ज़िक्र वफ़ा सारी ,

गर हम हर्फों में बयान करते किताबों के सफ़हे कम पड़ जाते ।

 

मैं मुझको ढूढ़ता हूँ वो मुझमे ग़ुम कहीं ,

हर रोज़ यही किस्सा शब् की सेहर नहीं ।

 

हर ओर फैला पसरा कारवाँ ए आदमी ,

कारोबार ए जहान में खुद के किरदार को समेटता फिरता है आदमी ।

 

जिस्म के दाग़ मिट गए सारे ,

लफ़्ज़ों के घाव बड़े गहरे हैं ।

 

रात सजती है शायरों की महफ़िल से ,

लाख सजा ले चाँद तारे फलक पे कोई बात नहीं ।

 

पहले सभी बच्चे थे फिर बच्चे बड़े होते गए ,

आदम ए सूरत एक सी थी जब दुनियादारी की समझ आई फिर हिन्दू मुस्लमान होते गए ।

 

तेरी महफ़िल में आकर के मैं और तनहा होता गया ,

खुद को रुस्वा किया खुद से मैं खुद का गुनहगार होता गया ।

 

जाम आँखों से पीला दे शाकी ,

तेरे हांथों को कोई इलज़ाम लगा दे नागवारा है हमें ।

 

कहते हैं क़लम का अपना मिजाज़ होता है ,

अब कोई बेज़बान पर्दा नशीन बुत बोल पड़े रुख़ से नक़ाब हटा दे तो खुद बा खुद क्यों न ग़ज़ल हो जाए ।

 

एक अज़ाब जमा रखा था सीने में ,

हर्फ़ लफ़्ज़ों में उतर आये तो रूह ए सुकूत आये ।

 

लफ्ज़ खामोश उसके थे लेकिन ,

वो शहर भर में कहता फिरा बेज़बान अब मैं नहीं रहा ।

 

वो समझते हैं शायरी होती है चंद नगमों से ,

लफ्ज़ तो ख्वामख्वाह ही बिलख पड़ते हैं चश्म ए तर से ।

 

सर्द हवाओं की गिरफ्त में हैं जहां जमाना सारा ,

सुना ही किसी के दिल धड़कनो में मेरे लम्स की गर्माहटें आज भी हैं ।

 

एक टीस सी उठती है अब भी सीने में ,

जब कोई नाम उसका ज़बान पर लाता है ।

 

आग लग जाती है सर्द लम्हों में ,

दिल का आलम भी बहक जाता है ।

 

वो रोने के लिए आता था मेरी गली में ,

बेमौसम की जब बर्षात हुयी तब पता चला मुझको ।

 

मुद्दतें बीत गयी बस एक मुद्दत के बाद ,

दिल फिर न तलबगार हुआ दीदा ए शिद्दत के बाद ।

 

उम्रें गुज़ार दी हमने होशियार होने में ,

मगर आज भी दुश्मन हमेशा नादाँ चुनते हैं ।

 

बेलिबास जिस्म पर खाली बुस्सर्ट की एक बटन ,

न जेठ की चिलचिलाती दुपहरी न ठण्ड की कोई चुभन ,

बचपन के दिन भी क्या दिन थे इकन्नियों में संवरती थी मुस्कुराहटें सारी ,

साइकिल के चक्के में रख कर तमाम ख्वाहिशें जब गाँव की पगडंडियों में घूमते हम थे ।

वो अल्हड जवानी वो रहट का पानी ,

वो सूखे कांस के गेसू सज़र की शाख के मखमली झूले ।

वही बचपन के बीते दिन वही फिर कहकशां सारे ,

वही माँ की गुनगुनाती लोरियां कोई लौटा दे मेरे पलछिन ॥

 

ज़िन्दगी गवां दी तमाशाई बनकर ,

मेरे इस तमाशे पर आज भी हँसता है ज़माना सारा ।

 

शहर में सभी अपने थे तो पराया कौन है ,

दिल उसकी ही हिमायत में लगा है बरगलाया कौन है ।

 

भड़क उठे थे शोले बर्फ़ की तूफ़ानी हवाओं में ,

सज़र के सूखे पत्ते शाख से बिछड़े तो फिर कहीं ठिकाना नहीं पाए ।

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रात ख़ामोश रहकर भी जो नग़में छेड़ देती है ,

फिर सरगोशियों से सारी शब् मैं तन्हा उनको सजाता हूँ ।

 

जब तक ज़िंदा था तब तक रिश्तों में खून की गर्मी थी ,

फिर यूँ की तब्दीलियत ए मौसम ए मिजाज़ के साथ तर्क ओ ताल्लुक़ को भी पाला पड़ गया ।

 

दरमियाँ दिलों के रुस्वाइयाँ लाख सही ,

मेरी आवाज़ सुनते ही मेरे पड़ोस के घर भी मेरे जश्न ए शरीक की तैयारियों में जुटने लगे ।

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