#urduquotes खबर हाल ए मुफ्लिश के मौत की क्या उड़ी बहारों ने ठिकाना बदला ,
खबर हाल ए मुफ्लिश के मौत की क्या उड़ी बहारों ने ठिकाना बदला ,
वो तो फिर भी ग़ैर था देखकर सूखे दरख्तों को परिंदों ने आब ओ दाना बदला।
दुनियाँ में जीना भी अब रस्म ओ रवायत से कम नहीं ,
बग़ैर तेरे ये जिस्म मेरा है मकीन मैं नहीं।
तरस आता है मौजूदा दौर में देखकर इब्न ए इंसान की हालत ,
आदम की गैरत पे हँस रहा है बुत इसमें नहीं हैरत।
इंसान बुतनुमा था क्या कम था ,
अब तो बदमिजाज़ ही नहीं बदगुमान हुआ जा रहा है।
पहले इबादत में सर झुकाता था खुदा के सामने ,
अब खुद खुदा ही हुआ जा रहा है।।
तूने दिल ए बियाबान में हशरतों के सज़र थे लगाए ,
अब बाग़ नौबहार में क्यों उजाड़ रहा है।
कुछ ख़ुलूस हमारे इश्क़ में था ,
कुछ उनकी रहगुज़र में गुज़री।
बस आतिश ए दौर में रहा कारवाँ अपना ,
मत पूछ मेरे यार क्या दिल पर गुज़री क्या नज़र पर गुज़री।
शाम का दरिया ओ ग़मगीन साहिलों के मिजाज़ जुदा थे ,
फिर यूँ हुआ की साहिल खुद ही लहरों की मौजों में बह गया।
बस इश्क़ की गहराइयों का तगादा करने ,
हर शाम दरिया भी चला आता है साहिलों पर लहरों से किनारा करके।
बहते दरिया की मौजों से पता चलता है ,
मौसम ए हिज्र में भी सज़र के सूखे पत्तों ने पयाम ए इश्क़ फिर से भेजा है।
जो बात अनकही थी ज़बान से ,
वो बात बहते अश्क़ के दरिया ने बोल दी।
चश्म ओ चराग जलाकर दिल तेरा इंतज़ार करता है रातभर ,
खुद की तक़दीर से वाक़िफ़ है फिर भी तेरा ऐतबार करता है जागकर ,
रात का आलम शबनमी था यूँ ही नहीं सुबह की फ़िज़ा पुरनम है ,
मोहब्बत का अपना कहकशां था यूँ ही नहीं दर्द की अपनी सरगम है।
ख्यालों की कतरन संजोते रात गयी ,
तब कहीं जाकर के शब् की तक़दीर में मुक़म्मल सेहर आई।
क़लम को बेचकर क़ुर्बानियों की बात करते हैं ,
शर्म को बेचकर पानी की बात करते हैं।
बेकार हैं जवानियाँ उनकी ,
जो दिल में छुपाकर तूफानों को नज़र ए फानी की बात करते हैं।।
रात के घुप अंधेरों का वहम पुर सकून देता हैं ,
दिन के सुर्ख उजालों का हकीकत ए रूदाद रुला देता हैं।
रात के पलछिन भी मेरे अपने हैं ,
दिन को मुझसे ही मुझको बेगाना बना देता हैं।।
हवा के सर्द झोकों का आलम ये रहा ,
ठण्ड की सिहरन बस जिस्म तक रही रूह बेहिसाब भीतर तक धधकता ही रहा।
जाने कितने अबरों को आसमान लिए फिरता है ,
तिस्नगी लबों की बनकर ताउम्र रही है मोहब्बत तेरी।
यूँ है की मोहब्बत नहीं उन्हें हमसे ,
एक हम ही हैं जो ज़माने भर की रुस्वाइयों से डरते हैं।
गले लगकर कोई कैसे गिले शिकवे करता ,
बाद रुख़सत की तन्हाइयों से डरते हैं।।
लाख चाहे ज़माना ढा ले मोहब्बत पे सितम ,
परवाने कब शमा की आसनाईयों से डरते हैं।
ज़मीन के ज़र्रों पे बसर कर लेते ये जलते बुझते चराग ,
फ़िज़ा में उठते सरारों की शानसाइयों से डरते हैं।
कहानियाँ तो नाकाम ए मोहब्बत की बना करती हैं ,
क़ामिल ए इश्क़ का कहीं कोई ज़िक्र ए फशाना नहीं मिलता।
ज़मीन से उठते सरारों ने फलक से हाल ए दिल पूँछा ,
जवाब आया की हिज्र ए तन्हाई की आग दोनों में बराबर ही लगी है।
तुम जल रहे हो देखकर बारिश की बूँद को ,
ज़मीन पर बिखर के तनहा देखो कैसे बर्षात रो रही है।।
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हिज्र में जलते आसमान की तासीर मत पूछो ,
सर्द मिटटी से बिना आग उठता धुंआ हो जैसे।
यूँ तो भीख मांगने से रोटी नहीं मिलती है ,
औक़ात देखकर ही लोग दरीचे बिछा देते हैं।
हिदायतें हुश्न ओ इश्क़ के बाजार में हर बार मिलती हैं ,
का जोखिम तो है ही आपको आपके बेस कीमती सामान दिल के लुट जाने का भी खतरा है।
ज़माने गुज़र जाते हैं रास्तों से नक्स ए पा मिटाने में ,
कुछ बीते वक़्त की तहरीरें पत्थर की लकीरों सी दिल में उतर जाती है।
दिल को बस तलब है मेरी हर सहर बस उसके शहर में हो ,
चाहे जिस्म हो रेज़ा रेज़ा न ज़िन्दगी की बसर हो।
बाद उसके है हर एक मंज़र वीरान ,
जिसके तसब्वुर से मेरी दुनिया में जश्न ए रानाई थी।
रुख़सार पर नक़ाब जैसे अब्र ओ आब बेक़रार ,
हर एक चिलम को ज़ार ज़ार करे आफ़ताबी हुश्न ओ शबाब बेशुमार।।
फ़लक से दिखती है तेरे मक़ान की माली हालत ,
क्या दर ओ दीवार का पर्दा करेगा चेहरे पर नूरानी मुस्कान लेकर।
मुस्कान फरेबी उधार का मक़ान लगता है ,
दर ओ दीवार जुदा उन्वान सा किरदार तेरा लगता है।
कोई कोर कसर नहीं छोड़ी इब्न ए इंसान जलाने में ,
अब श्मशान के मुर्दों पर हर शख्स आंसू बहा रहा है।
आशियाँ वालों के बुझे होंगे चस्म ओ चराग ,
खानाबदोश लोग जाने किसकी फ़िक्र में आंसू बहा रहे हैं।
जिन्हे गुमान था बस्तियाँ जलाने का ,
वो घर अपना जलाकर के हाँथ सेंक रहे हैं।
जनाज़े पर हुजूम के लिए वो मरता रहा तमाम उम्र ,
बेक़द्र ज़माने ने मौत के खौफ से काँधा तक नहीं दिया।
ज़िन्दगी और कितने अज़ाब ए जहान दिखाएगी हमें ,
हमने तो हंस करके तेरे हर एक सितम को सीने में ज़ब्त किया है।
ये बर्बादी ए मंज़र गज़ब तमाशा है ,
दोस्त ओ दुश्मन सबका हाल बेतहाशा है।
क्या मिला तुझको आब ओ हवा से दुश्मनी करके ,
बेफज़ूल ही मरना था तो मेरे इश्क़ में मरता।
ख़ुशी है मुझको मैं ही बस तबाह नहीं ,
तेरा दामन भी मेरी बर्बादियों की ज़द में है।
लोग जाग जाग कर शब् ओ रोज़ तबाह होते हैं ,
हम सो सो कर मोहब्बत में इन्क़िलाब करेंगे।
इसे लफ़्ज़ों की अदायगी कहें या मोहब्बत की अना,
खामोशियों में मेरे लफ्ज़ बातें हज़ार करते हैं।
आजकल अक़्स तेरे नज़्मों में उतर आते हैं ,
मेरे हर एक लम्हों में तेरी हुकूमत सी बनी रहती है।
कितना सुकून से जी रहा था मैं ,
फिर यूँ हुआ की सरगोशियों से तेरी मोहब्बत बवाल खड़ा करके गयी।
ज़िन्दगी कम पड़ गयी ऐ दोस्त गोया मोहब्बत हम भी कर लिए होते ,
न सुनते महफ़िल में ज़िक्र ए उल्फ़त तो ,
जाने बेखुदी में जाम ए इश्क़ हम भी पी लिए होते।
जीने भी नहीं देता मरने भी नहीं देता ,
मेरा महबूब ए सितमगर बात रहने भी नहीं देता।
मरने के बाद न दो मुझे बहिस्त की दुआ ,
जीते जी कोई अपने दोनों जहान मेरे नाम कर गया।
नए ज़माने का हुनर रखता है ,
दिल जो माँगे कोई मुस्कुरा के कभी हरदम हथेली पर देने को जिगर रखता है।
इक लिहाफ़ को तरसी ताउम्र रूहों ने जब रिश्तों का दामन छोड़ दिया ,
किस कूचा ए महफ़िल में मिली है पनाह उसे जिसने दिल के जज़्बों का भरम तोड़ दिया।
ज़मीनी रिश्ते ज़ार ज़ार हुए एक खुदा ही मेरा रहबर था,
मैंने अपने करम का हिसाब क्या पूछा ज़माने ने मुझे मार दिया कोई मेरे साथ न था।
जो ख़ौफ़ था हवाओं का परिंदों ने वो भी तोड़ दिया ,
ग़रूर मिटटी में दफ़न करके रूहों ने पिंजर का दामन छोड़ दिया।
चंद साँसों का मुंतज़िर था हर इंसान यहाँ ,
हार कर मैंने एक हसीन मुजस्सिम से मोहब्बत कर ली।
लाव लस्कर ज़माने भर का महज़ दिखावा था ,
चंद साँसों की मोहताज़ खैरात में मिली ज़िन्दगी हो जैसे।
कौन किसका हुआ हुआ ज़माने में ,
सबने बस सांस चलने तक की दोस्ती रखी।
ख़ुदा भी अना का जवाब अना से देता है ,
सर झुकाया गर सज़दे में ग़रूर का लिबास पहले ही उतार कर फेंक देता है।
सारा का सारा शहर मकानों का कब्रिस्तान नज़र आता है ,
ख़ुदा भी हैरान है इंसान को देखकर अब तो इब्न ए इंसान ही इंसानियत का गुनहगार नज़र आता है।
इक सुनसान समंदर का सफीना हूँ मैं ,
लबों की ख़ामोशी दिलों में ज़ब्त ख्यालों के कहकशां से घिर गया हूँ मैं।
ज़माने की रवायतों का वास्ता देकर चला गया ,
तर्क ओ ताल्लुक़ ग़ज़ब का था उससे उसकी मोहब्बत का हमने भी तज़किरा नहीं किया।
रोज़गार ए इश्क़ में दिल भी दिहाड़ी बन गया ,
चाकरी शाम ओ सेहर बस दीदा ए लुक़मान को तरसा किया।
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साँस थम जाए मौत आ जाये ,
बगैर तेरे ये सुकून ए रूह भी कहाँ मुझको।
उफ़ नज़रों का तग़ाफ़ुल उस पर तेरा लर्ज़िश ए बयान ,
क़तील खुद न मरते तो क्या क़त्ल का इज़ाद ए सामान करते।
ताउम्र संजोया था दौलत जाने किसके लिए ,
क्या खबर थी ज़िन्दगी फाख्ता में गुज़रेगी चंद साँसों के लिए।
किसने छीना है मेरे शहर का चैन ओ सुकून ,
सुनशान रास्ते और दर्द से चीखते मकान।
शुष्क हवाएं हर एक मंज़र वीरान ,
गुमनाम सा हर इंसान दिखता है अब ख़ौफ़ज़दा।
राह ए फ़कीरी का आलम न पूछे कोई ,
कितने जतन के बाद मसर्रत नसीब होती है।
कौन था बाद मेरे मुझ पर रोने वाला ,
मैंने भी हँसते हुए दुनिया को अलविदा बोला।
दिल में रहने वाला मक़ीन भी होता सारी दुनिया सराय न होती ,
कोई किसी के लिए मरता तो सारी दुनिया वीरान न होती।
सज़र के टूटे पत्तों ने ठिकाना बना ही लिया ,
न मिली आसमान की ऊँचाइयाँ ख़ाक ए दामन को मुस्तक़बिल बना लिया।
एक शहर वीरान सा है हर नज़र में तूफ़ान सा है ,
अंजुमन में खिलेंगे गुल नौबहार के परिंदों में फिर भी हौसला सा है।
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